स - समता धारी पुरुष लौकिक व्यवहार की अंश मात्र चिंता करता है तो वह मूर्ख क्यों नहीं है और हमारा आदर्श कैसे है?
जो व्यक्ति स्वभाव से बहुत शान्त, सुख दुःख में समता धारण करने वाला, समाधिमय जीवन व्यतीत करने वाला, सहज स्वभावी, फेरफार की बुद्धि का त्यागी, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में मात्र ज्ञाता-दृष्टा की बुद्धि रखने वाला, उस बुद्धि को ही अपना स्वभाव समझने वाला, सभी लौकिक लाभ-हानि को कर्माधीन छोड़कर उनमें ममत्व परिणाम नहीं करने वाला, अन्य लौकिक व्यवहार की अंश मात्र, जिससे लौकिक व्यवहार बना रहे, चिंता करने वाला होता है उस व्यक्ति को अन्य लौकिक जन है, जो देह में एकत्व करते हैं, मूर्ख, अपनी जिम्मेदारी को न समझने वाला, कर्तव्यनिष्ठता से रहित समझते हैं। परंतु वे जन ये नहीं जानते और समझते कि जिस भी व्यक्ति ने सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का चिंतवन कर, "जो होना है सो निश्चित है केवलज्ञानी ने गाया है" इस पंक्ति का गूढ़ भाव का श्रद्धान कर, अपने पूरे सामर्थ्य पूर्वक पर से ममत्व का त्याग कर दिया है और एक अपनी आत्मा के स्वरूप का चिंतवन कर जितना संभव हो उतने समता भाव पूर्वक अपने को शुद्ध, एक, अखण्ड, अविनाशी, पर में हस्तक्षेप करने की शक्ति से रहित, देह से भिन्न, इंद्रियों की अपेक्षा से पार अतीन्द्रिय भासित करता हुआ, कथंचित् शुद्धोपयोग में लीन होता हुआ, मात्र आत्म ज्ञान ही कल्याणकारी है ऐसा समझता है, वह पुरुष तो स्वयं को उस वस्तु की प्राप्ति के लिए तैयार कर रहा है जिसे पुरुषार्थों में परम पुरुषार्थ, गतियों में सर्वश्रेष्ठ गति (सापेक्ष कथन), जीव के लिए सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ मंजिल 'मोक्ष' के लिए तैयार कर रहा है और जब पांचों समवाय मिल जाएंगे तब पर से जितना ममत्व है उतना ममत्व भी त्याग कर, देह से जितनी एकत्व बुद्धि है उस एकत्व बुद्धि को भी त्यागकर, कथंचित् शुद्धोपयोग की पूर्णता को प्राप्त कर, जितना भी लौकिक व्यवहार है उतने का भी त्यागी होकर मात्र अपनी अनन्त ज्ञान स्वरूपी, अतीन्द्रिय, अनन्त सुख की, अनन्त शक्ति की और ऐसे ही अनन्त गुणों व धर्मों की पूर्णता से सहित आत्मा का ध्यान कर, उस आत्मा में रम कर, "मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ" इस प्रकार जानकर, सहज ज्ञाता - दृष्टा भाव का धारी हो जाएगा और उस मोक्ष को, अनन्त चतुष्ट्य को प्राप्त कर, अनन्त काल तक अतीन्द्रिय, अनन्त सुख को प्राप्त हो जावेगा। ऐसे व्यक्ति को देखकर अन्य व्यक्तियों को तो उस भाव को ग्रहण करना चाहिए जैसा भाव वीतरागी अरहंत भगवान की नग्न प्रतिमा को देखकर आता है अर्थात् विरागी भाव, ज्ञाता-दृष्टा रूप आत्मा में रमने का भाव, आत्म ज्ञान, आत्मकल्याण का भाव आता है। जब वह व्यक्ति सामयिक (ध्यान) करने बैठता है तब उसके चारों ओर वीतरागता की गंध उसी प्रकार फैल जाती है जिस प्रकार जिन मंदिर में विराजमान वीतरागी प्रतिमा के चारों ओर वीतरागता की गंध फैल जाती है। ऐसे व्यक्ति के आचरण, व्यवहार को देखकर जो भी अन्य लौकिक जन उसे मूर्ख इत्यादि उपाधियाँ प्रदान करते हैं उनका अभी अनन्त संसार शेष है क्योंकि उस व्यक्ति को देखकर हर उस व्यक्ति के वैसे ही भाव होंगे जैसे उसे कर्म बंधने हैं अर्थात उसकी अन्य गति के लिए जो निश्चित कर्म है उनके बंधन अनुसार ही उन व्यक्तियों के भाव होंगे। (जैसी गति, वैसी मति) अतः यदि किसी ऐसे व्यक्ति को देखकर हमारे परिणाम समता रूप हो रहे हैं अथवा राग द्वेष रूप हो रहे है तो उनमे फेरफार की बुद्धि त्याग उस व्यक्ति के समान समता धारण कर मोक्ष का उपाय करें। इसलिए ऐसे व्यक्ति को आदर्श बना अपना कल्याण करने का प्रयास करना चाहिए।
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